भारतीय संविधान की उद्देशिका(प्रस्तावना) | Preamble of Indian Constitution In Hindi

प्राय: प्रत्येक अधिनियम के प्रारम्भ में एक उद्देशिका (Preamble) होती है। उदेशिका में उन उद्देश्यों का उल्लेख किया जाता है जिनकी प्राप्ति के लिए उस अधिनियम को पारित किया गया है।

  • विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली भारतीय संविधान की उद्देशिका ऑस्ट्रेलियाई संविधान से प्रभावित है।

उद्देशिका संविधान का सार है, जो संविधान के उद्देश्यों और संविधान के दर्शन को प्रदर्शित करती है।

संविधान के आदर्शो और आकांक्षाओ से संविधान निर्माताओ के मस्तिष्क में रहे विचारो को जानने में मदद मिलती है।

उद्देशिका को प्रस्तावना भी कहते है लेकिन संविधान मे “उद्देशिका” शब्द का जिक्र किया गया है।

भारतीय संविधान की उद्देशिका


“हम भारत के लोग, भारत को एक 1सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:

सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,

प्रतिष्ठा और अवसर की समता

प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में

व्यक्ति की गरिमा और 2राष्ट्र की

एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता

बढ़ाने के लिए

दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26-11-1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”


  1. 42वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 की धारा 2 द्वारा (3-1-1977 से) “प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
  2. 42वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 की धारा 2 द्वारा (3-1-1977 से) “राष्ट्र की एकता” के स्थान पर प्रतिस्थापित।

संविधान की प्रस्तावना का स्पष्टीकरण

पहले एक बात स्पष्ट कर लेते है की संविधान के लिए उद्देशिका होना जरूरी नही है, लेकिन अगर है तो वह अच्छा है, वह संविधान के मूल उद्देश्य को संक्षेप्त समझा सकती है।

ज़्यादातर लेखित संविधान मे प्रस्तावना लिखी होती है जो अलेखित संविधान मे नही होती है।

  • जैसे भारत के संविधान मे उद्देशिका है जबकि अलेखित ब्रिटेन के संविधान मे उद्देशिका नही है ।

समझ ने के लिए हम उद्देशिका को पाँच भाग मे विभाजित करते है।

  1. संविधान का स्त्रोत
  2. देश की शासन प्रणाली
  3. नागरिकों के अधिकार
  4. नागरिकों के कर्तव्य
  5. संविधान स्वीकारने की तारीख

1. संविधान का स्त्रोत

संविधान का स्त्रोत से मतलब है, जहा से संविधान को शक्ति मिलेगी, जो संविधान को सर्वोपरि बनाएगा।

उद्देशिका में प्रयुक्त “हम भारत के लोग….. ..इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं” पदावली से यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान का स्रोत भारत की जनता है और भारतीय जनता ने अपनी सम्प्रभु इच्छा को इस संविधान के माध्यम से व्यक्त किया है।

इसका तात्पर्य यह है कि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों की सभा द्वारा संविधान का निर्माण किया गया है।

कुछ लोग इस बात से सहमत नहीं हैं, क्योंकि संविधान निर्मात्री सभा के प्रतिनिधियों का चुनाव जनता के वयस्क मताधिकार द्वारा नहीं किया गया था।

1947 की संविधान सभा में सभी प्रतिनिधियों को जनता का समर्थन नहीं प्राप्त था।

ऐसा ही एक दावा केहर सिंह बनाव भारत संघ केस में किया गया। जिसको सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया।

संविधान-निर्मात्री सभा की स्थापना ब्रिटिश-संसद के एक अधिनियम द्वारा की गयी थी इसलिए यह एक सम्प्रभु संस्था नहीं कही जा सकती। सैद्धांतिक द्रष्टि यह बात सही भी है।

लेकिन व्यवहार में भारत की जनता ने दिखा दिया है कि सारी शक्ति देशवासी के हाथो में है। 1950 के बाद बने कानून और किये गए संवैधानिक सुधार यह दिखते है कि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही देश का शासन चलाते हैं।

2. देश की शासन प्रणाली

उद्देशिका के अनुसार भारत कि शासन प्रणाली इस पाँच सिद्धांत को जरुर सुनिश्चित करेगी

  1. प्रभुत्वसंपन्न राष्ट्र
  2. समाजवादी विचारधारा
  3. पंथ निरपेक्षता
  4. लोकतंत्रात्मक राष्ट्र
  5. गणराज्य देश

2.1 प्रभुत्वसंपन्न राष्ट्र (Sovereign Country)

प्रभुत्वसंपन्न राष्ट्र का यह अर्थ है कि भारत आंतरिक या बाह्य द्रष्टि से किसी भी विदेशी सत्ता के अधीन नही है।

इसका सरल अर्थ है की भारत अपने निर्णय खुद से और पूरी स्वतंत्रता से लेगा । यह निर्णय देश कि जनता की तरफ से चुने हुए प्रतिनिधि लेते है।

भारत अपनी विदेशी नीति मे जैसे चाहे वैसे गठन कर सकता है। वह किसी देश से मित्रता और संधि अपनी मरजी कर सकता है।

पाकिस्तान के साथ कैसा व्यवहार रखना है यह भारत खुद से निर्णय करेगा नही कि अन्य देश के दबाव मे।

स्वतन्त्रता के पश्चात् भी भारत राष्ट्रमण्डल (Commonwealth) का सदस्य है। किन्तु यह सदस्यता भारत की सम्प्रभुता पर अंशमात्र भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालती है।

कई बार सवाल उठते है की भारत WTO, UNSC जैसी वैश्विक संस्था और USA जैसे देशो की बातें मानता है।

वास्तव में भारत कई वैश्विक संस्था का सदस्य है, जहा पर उसे संस्था के नियम को मानना पड़ता है, लेकिन यह बदले मे भारत को कई प्रकार के फायदे देता है इसीलिए प्रभुत्वसंपन्नता का उल्लंघन नही माना जाएगा।

भारत ने एसी संस्था में सदस्यता को अपनी इच्छा से स्वीकार किया है और वह जब चाहे इसकी सदस्यता को छोड़ सकता है।

देखिये भारत अपनी विदेशी कूटनीति अपने फायदे और हितो को ध्यान में रखकर बनाता जिसमे कभी कभी अन्य देश के हितो का भी ख्याल रखना पड़ता है, इसमें भारत गैर सार्वभोमिक नही हो जाता।

वैसे भी वैश्विकीकरण के बाद सभी देश आपसमे जुड़े हुए है, जिस वजह कोई भी देश सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न नही है।

2.2 समाजवादी विचारधारा (Socialist Ideology)

विश्व में मुख्यतः दो विचारधारा पर देश का प्रशासन चलता है। एक साम्यवादी (Communist) और दूसरा पूंजीवादी (Capitalist) ।

साम्यवादी में देश के सारे संशाधन पर सरकार का काबू होता है, जबकि मुड़ीवादी मे संशाधन का नियमन बाज़ार पर छोड़ दिया जाता है जिसमे सरकार बहुत कम हस्तक्षेप करती है।

आज़ादी के बाद भारत की परिस्थिति को देख कर इन दोनों के बीच की समाजवादी विचारधारा (Socialist Ideology) को अपनाना ठीक समझा।

हालाकी, संविधान में ‘समाजवाद’ शब्द लिखा नही गया था फिर भी संविधान के प्रावधान जैसे भाग 4 के नीति निर्देश सिद्धांत इसी विचारधारा को दर्शाते थे।

जिसको बाद में जरूरत महसूस होने पर 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 से उद्देशिका मे लिख दिया गया।

इस शब्द की कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है।

  • किन्तु सामान्य अर्थ में समाज में उपस्थित सभी संशाधनो को समाज के सभी लोगों में समानरूप से न्यायपूर्ण वितरण करना कह सकते है।

भारतीय संविधान ने इस दिशा में एक बीच का मार्ग अपनाया है, जिसे मिश्रित अर्थव्यवस्था भी कहते हैं।

लेकिन भारत के परिपेक्ष मे समझे तो,

समाजवादी व्यवस्था में भारत की सरकार कुछ संशाधन पर अपना नियंत्रण रखती है जिसका इस्तेमाल देश की जनता के लिए कल्याणकारी कार्यो एवं उनके विकास के लिए किया जाता है।

ओर बाकी संशाधन को बाज़ार (Market) के ऊपर छोड़ दिया जाता।

  • संक्षेप्त में कहे तो देश की अर्थव्यवस्था सरकार तथा ख़ानगी दोनों क्षेत्र से चलती है।

उदाहरण: ONGC सरकारी पेट्रोलियम रिफ़ाइनेरी है और Reliance ख़ानगी है।

  • परमाण्विक कार्यो को सिर्फ सरकारी संस्था करती है, जबकि रेल्वे मे सरकार और खानगी दोनों काम करते है, वैसेही रियल इस्टेट पूरा ख़ानगी क्षेत्र है।

सरकार का संशाधन पर नियन्त्रण की मात्रा कितनी अधिक या कितनी कम है इस आधार पर समाजवाद के वास्तविक स्वरूप का अवधारण किया जाता है।

1991 के LPG सुधारो में सरकार कई क्षेत्रो में अपना नियंत्रण कम करके थोड़ा सा मुड़ीवादी की ओर जुकी है।

2.3 पंथ निरपेक्षता (Secularism)

भारत का कोई राष्ट्रीय धर्म नही होगा।

संविधान के अंदर पंथ निरपेक्ष या धर्म निरपेक्ष शब्द का उल्लेख नही है, लेकिन संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 25 से अनुच्छेद 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता के रूप में मूल अधिकारों का उल्लेखित किया गया है।

पाकिस्तान, ईरान जेसे देशो का राष्ट्रिय धर्म इस्लाम है जबकि भारत में सभी धर्मो को समान महत्व प्रदान किया गया है।

प्रश्न यह है की राष्ट्रिय धर्म होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है ?

बिलकुल फर्क पड़ता है,

अगर आपको पाकिस्तान सरकार के किसी भी उच्च पद जेसे – प्रधानमंत्री, कोर्ट के जज, आर्मी अधिकारी आदि पर बेठना हो तो आपको इस्लाम धर्म का होना अनिवार्य है।

और अगर आप इस्लाम को नही मानते तो फिर आपको इस्लाम स्वीकार करके बाद ही पद मिल सकता है।

  • जबकि भारत में किसी भी धर्म का व्यक्ति ऐसे पद ग्रहण कर सकता है।

राष्ट्रीय धर्म यह भी दर्शाता है की उस देश की नीतियां अपने राष्ट्रिय धर्म की ओर ज्यादा जुकी हुई होगी।

ध्यान देने की बात यह है की भारत में सकारात्मक धर्म निरपेक्षता है, जिसमे सभी धर्मो को समान महत्व दिया जाता है।

इसके विपरीत यूरोप के देशो में नकारात्मक धर्म निरपेक्षता है, इसमें किसी भी धर्म को महत्व नही दिया जाता।

2.4 लोकतंत्रात्मक राष्ट्र (Democracy)

भारत लोकतंत्रात्मक राष्ट्र होगा, जिसमे देश को चलाने के सभी निर्णय देश की जनता लेगी।

सवा सो करोड़ वस्ती होने से सभी को निर्णय में समावेश करना वास्तविक नही है इसीलिए उनके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि निर्णय लेते है।

अब्राहम लिंकन के अनुसार,

By the people, For the people, Of the people (लोगों का, लोगों के लिए, लोगों द्वारा चलता शासन)

अब्राहम लिंकन

शासन ही सही मायने में लोकतंत्र की निशानी है।

2.5 गणराज्य देश (Republic)

गणराज्य में जनता सर्वोपरि शासक होती है, जहा किसी वंशानुगत (Hereditary) परिवार या वंश का शासन नहीं होता है।

गणराज्य में जनता देश के प्रमुख को निश्चित समय के लिए चुनती है।

इस परिभाषा के अनुसार भारत गणराज्य देश है, क्योंकि हम अपने राष्ट्रपति को परोक्ष रूप से पांच साल के लिए चुनते है।

जबकि ब्रिटेन में रानी के परिवार का शासन होता है, जो वंशानुगत पद धारण करते है और जिसको जनता ने नही चुना होता है, इसीलिए वह गणराज्य नही है।

  • संक्षेप्त में :- राजप्रमुख निर्वाचित होगा न कि वंशानुगत

3. नागरिकों के अधिकार

3.1 न्याय का अधिकार

संविधान के अंदर देश के नागरिको और रहवासी दोनों को कई अधिकार दिए है लेकिन प्रस्तावना में सिर्फ तीन का उल्लेख है।

3.1.1 सामाजिक न्याय (Social Justice)

सभी जाति, धर्म और वर्ग के देशवासी को समान अधिकार दिए जायेंगे।

अनुच्छेद 15 और 16 में उल्लेख है की भारत किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।

  • जिसका सरल अर्थ है समाज में सबको समान मान-सम्मान मिलेगा, कोई भी उच्च-निच का भेद नही होगा।

संविधान के भाग 3 में लिखित अनुच्छेद 14 से 18, मूल अधिकारों के रूप में सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करते है।

इस शब्द से यह बात सुनिश्चित होती है की संविधान भारत की सरकार को पिछड़े वर्ग (SC, ST, OBC) और महिला के उत्थान के लिए प्रेरित करेगा।

3.1.2 आर्थिक न्याय (Economic Justice)

भारत सभी वर्गों के लोगों के लिए न्यूनतम आर्थिक क्षमता (जैसे न्यूनतम आय, संपति) सुनिश्चित करेगा जिससे व्यक्ति अपनी मूल आवश्यकताये (जैसे अन्न, कपडा, मकान) पूर्ण कर सके।

सुर्ख़ियों में चल रही सार्वभौमिक बुनियादी आय (Universal Basic Income) इसी न्याय की पूर्ति के लिए है।

3.1.3 राजनीतिक न्याय (Political Justice)

राजनीतिक न्याय से मतलब है की, सभी नागरिको को समान राजनीतिक अधिकार मिलेंगे, सभी को राजनीतिक दफ्तरों में जाने की छुट होगी और सभी को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलेगा जिससे सरकार में वह अपनी बात रख सकेंगे।

पंचायती राज दाखिल करने से ग्रामीण एवं जनजाति समुदाय को राजनीतिक न्याय सुनिश्चित किया गया है।

  • उपर के तीनो न्याय के लिए संविधान ने आरक्षण का भी प्रावधान किया गया है।

3.2 स्वतंत्रता का अधिकार

उद्देशिका में सिर्फ पांच स्वतंत्रता का उल्लेख है।

  1. विचार :- आपको कुछ भी विचार ने की और मानसिक क्षमता बढ़ाने की स्वतंत्रता है
  2. अभिव्यक्ति :- अपनी भावना को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19)
  3. विश्वास :- किसी धर्म, समूह या व्यक्ति पर विश्वास करने की स्वतंत्रता
  4. धर्म की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25)
  5. उपासना :- अपने धर्म या विश्वास को अपने तरीके से पालने की स्वतंत्रता

3.3 समता का अधिकार

  1. प्रतिष्ठा:– सभी को समान मान-सम्मान मिलेगा, किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेद नही किया जायेगा। (अनुच्छेद 14 और 15)
  2. अवसर:– वृद्धि या नौकरी के लिए सबको सामान अवसर दिए जायेंगे। (अनुच्छेद 16)

4. नागरिकों के कर्तव्य

4.1 व्यक्ति की गरिमा

उद्देशिका के अनुसार प्रत्येक नागरिक यह कर्तव्य होगा की वह देश के तमाम व्यक्ति की गरिमा का ख्याल रखे। ऐसा कोई भी काम न करे जिससे अन्य व्यक्ति के मान-सम्मान या भावना को छोंट पहुचे।

4.2 बंधुता

प्रत्येक देशवासी को आपसमें ऐसी बंधुता (मित्रता) रखनी होगी जिससे राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित हो।

जातिय, धार्मिक, आर्थिक ऐसे सभी भेदभावो को भुलाकर देशवासी का कर्तव्य होगा की देश में फैलते साम्प्रदायिकता, विस्तारवाद, कट्टरता जैसे दुषनो से देश को टूट ने से बचाने में अपना योगदान दे।

5. संविधान स्वीकारने की तारीख

26-11-1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) इस तारीख को संविधान सभा ने संविधान को पूर्ण बहुमत से स्वीकार कर लिया था। लेकिन पूरे देश में लागु 26-01-1950 को किया गया।

वैसे तारीख तो तारीख होती है लेकिन संविधान स्वीकार ने की एस तारीख से भारतीय कानून व्यवस्था में बहु महत्व है।

इस तारीख से पहले पारित किये गये सभी कानूनों को संविधान के प्रावधानों पर खरा उतरना पड़ा, जो संविधान के विरुद्ध थे उन्हें ख़ारिज कर दिया गया।

ओर एक बात संविधान के पहले के कानूनों पर सर्वोच्च न्यायलय किसी भी प्रकार की कार्यवाही या सुनवाही नही करती। लेकिन जिस ब्रिटिश कानूनों को संसद ने संविधानिक बताया है उन पर सुनवाही करती है।

याद रखें:- प्रस्तावना में लिखे यह स्वतंत्रता, समता और बंधुता शब्दों को फ्रेन्च क्रांति (1789-99) से प्रेरित हो कर समावेश किया है।

Similar Posts

8 Comments

  1. Great article with excellent ideas. I appreciate your post. Thank you so much and let’s keep on sharing your stuff.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *