1773 का रेगुलेटिंग एक्ट: पृष्ठभूमि, उदेश्य, प्रावधान
रेगुलेटिंग ऐक्ट क्यों लाना पड़ा?
एक बात याद रखे की यह कानून भारतीयों के लिए नही था, इस कानून को ब्रिटिश संसद ने ईस्ट इंडिया कंपनी को काबू(नियमन) करने के लिए पारित किया था। इसी वजह से इस कानून को नियमन एक्ट भी कहते है। जिसके पीछे पूरा इतिहास है।
रेगुलेटिंग एक्ट की पृष्ठभूमि(Background) या कारण
दीवानी अनुदान के फलस्वरूप कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा प्रान्तों की वास्तविक शासक बन गयी। इन प्रदेशों का वास्तविक प्रशासन कम्पनी के हाथों में आ जाने से कम्पनी के अधिकारीगण स्वच्छन्द हो गये।
प्रदेशों में प्रशासन की बागडोर कम्पनी के सेवकों पर ही थी, जिन्हें बहुत कम वेतन मिलता था। उन लोगों ने इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया और भारतवासियों का भरपूर शोषण करने लगे।
उनके अन्दर एक ही धुन लगी रहती थी कि वे कैसे भारत में लूट-खसोट कर अधिक से अधिक धन इंग्लैण्ड ले जा सकें।
कंपनी के अधिकारी उच्च पगार और शोषण के द्वारा इकठ्ठी की गई सम्पति से अमीर बनकर अपने देश ब्रिटेन लौटते थे जिससे ब्रिटिश समाज के दूसरे वर्गों में ईर्ष्या की आग भड़का दी।
कंपनी के एकाधिकार के कारण पूर्व के साथ व्यापार न कर पा रहे व्यापारी, उद्योगपतियों का उभरता वर्ग तथा आमतौर पर, ब्रिटेन में मुक्त उद्यम की उभरती शक्तियां-सभी उस लाभकारी भारतीय व्यापार और भारत की विशाल संपत्ति में हिस्सा चाहते थे जिसका अभी तक कंपनी और उसके सेवक ही उपयोग कर रहे थे।
ब्रिटेन के अनेक मंत्री और संसद के दूसरे सदस्य भी बंगाल की संपत्ति से लाभ उठाने के लिए उत्सुक थे।
उन्होंने जनसमर्थन पाने के लिए कंपनी को मजबूर किया कि वह ब्रिटिश सरकार को खिराज(कर) दे ताकि भारत से प्राप्त राजस्व के सहारे इंग्लैंड में टैक्सों या सार्वजनिक ऋणों का बोझ कम किया जा सके।
1767 में संसद ने एक कानून बनाकर कंपनी के लिए ब्रिटिश सरकार को प्रति वर्ष चार लाख पौंड कर देना अनिवार्य बना दिया।
ब्रिटेन के अनेक राजनीतिक विचारक और राजनेता कंपनी और उसके अधिकारियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था कि शक्तिशाली बनकर कंपनी और उसके अधिकारी, अंग्रेज़ राष्ट्र और उसकी राजनीति को नष्ट कर देंगे।
18वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटेन की राजनीति अत्यंत ही भ्रष्ट हो चुकी थी। कंपनी और उसके अधिकारियों ने अपने एजेंटों के लिए पैसे के बल पर हाउस ऑफ़ कामंस की सदस्यताएं प्राप्त की थीं।
अनेक अंग्रेज़ राजनेताओं को चिंता लगी थी कि भारत की लूट के बल पर कंपनी और उसके अधिकारी ब्रिटिश सरकार पर निर्णायक प्रभाव डालने की स्थिति में आ जाएंगे।
कंपनी और उसके विशाल भारतीय साम्राज्य पर अंकुश लगाना आवश्यक है वरना भारत की स्वामिनी बनकर कंपनी ब्रिटिश प्रशासन पर नियंत्रण स्थापित कर लेगी और ब्रिटिश जनता की स्वतंत्रता का हनन करने की स्थिति में आ जाएगी।
इस तरह ब्रिटिश राज्य तथा कंपनी के अधिकारियों के पारस्परिक संबंधों पुनर्गठन आवश्यक हो गया।
स्थिति यह थी कि जहाँ कम्पनी के कर्मचारी इस प्रकार अधिक से अधिक धन एकत्र कर रहे थे, वहीं कम्पनी का व्यापार घाटे में जा रहा था; फिर एक समय ऐसा आया जब कंपनी को सरकार से दस लाख पौंड का ऋण मांगना पड़ा।
ब्रिटेन संसद में विवाद हो गया की कंपनी के अधिकारी अमीर होते जा रहे है और कंपनी को नुकशान हो रहा है।
लेकिन अगर कंपनी के अनेक शक्तिशाली शत्रु थे तो संसद में उसके शक्तिशाली मित्र भी थे। इसके अलावा सम्राट जॉर्ज तृतीय उसके संरक्षक थे। इसलिए कंपनी ने जमकर शत्रुओं का सामना किया। अंत में संसद ने एक समझौते का रास्ता निकाला, जिसके अनुसार कंपनी के हितों तथा ब्रिटिश समाज के विभिन्न प्रभावशाली वर्गों के बीच एक नाजुक संतुलन कायम हो गया।
यह तय किया गया कि कंपनी के भारतीय प्रशासन की बुनियादी नीतियों पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण रहेगा ताकि भारत में ब्रिटिश शासन को ब्रिटेन के उच्च वर्गों के सामूहिक हित में चलाया जा सके।
साथ ही पूर्व के साथ व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार बना रहेगा तथा भारत में अपने अधिकारी नियुक्त करने का उसका बहुमूल्य हक भी उसी के हाथों में रहेगा।
गोपनीय समिति (Secret Committee)
फलतः कम्पनी के मामलों की जाँच के लिए ब्रिटिश संसद् ने एक गोपनीय समिति (Secret Committee) की नियुक्ति की ।
इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कम्पनी के प्रशासन में अनेक त्रुटियाँ दिखायीं और उनके शीघ्रातिशीघ्र सुधार करने के लिए सिफारिश की। गोपनीय समिति की सिफारिश के फलस्वरूप ब्रिटिश संसद् ने सन् 1773 ई० का रेगुलेटिंग ऐक्ट पारित किया।
1773 का रेगुलेटिंग एक्ट के उदेश्य
इस एक्ट का सिर्फ दो ही उदेश्य थे, ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यो का नियमन करके एक विश्वास पात्र संस्था बनाना जो ब्रिटेन की सरकार के अनुसार काम करे। और ब्रिटेन में चल रहे कंपनी विरोधी विवाद को सुलझा सके।
कंपनी की गतिविधियों से संबंधित पहला महत्त्वपूर्ण संसदीय कानून कोनसा था?
1773 का रेगुलेटिंग एक्ट
1773 का रेगुलेटिंग एक्ट किसको नियमन करने के लिए था?
1773 का रेगुलेटिंग एक्ट ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों को नियमन करने के लिए पारित किया गया
क्या रेगुलेटिंग एक्ट का उदेश्य सफल हुआ?
सफल नहीं हुआ, ब्रिटिश सरकार को कंपनी पर प्रभावी और निर्णायक नियंत्रण नहीं मिल सका।
रेगुलेटिंग एक्ट क्यों सफल न हुआ?
यह कानून कंपनी और उसके शक्तिशाली और मुखर होते जा रहे विरोधियों के झगड़े को भी नहीं सुलझा सका। इसके अलावा कंपनी अपने शत्रुओं के हमलों का निशाना बनी रही क्योंकि उसके भारतीय अधिकार क्षेत्रों का प्रशासन भ्रष्ट, दमनकारी और आर्थिक दृष्टि से विनाशकारी ही बना रहा।
1773 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा के छोटे इलाकों का प्रशासन कोन चलता था?
बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सिविल इलाकों के प्रशासन गवर्नर जनरल और उसकी परिषद ही करती थी।
रेगुलेटिंग एक्ट के प्रावधान(Provision)
रेगुलेटिंग ऐक्ट द्वारा कम्पनी के प्रशासन में निम्नलिखित परिवर्तन किये गये-
- रेगुलेटिंग ऐक्ट के पारित होने के पूर्व कलकत्ता, बम्बई और मद्रास की प्रेसीडेन्सियाँ एक-दूसरे से अलग तथा स्वतन्त्र होती थीं। उनका प्रशासन गवर्नर और उसकी परिषद् द्वारा होता था जो इंग्लैण्ड-स्थित निदेशक बोर्ड के प्रति उत्तरदायी थी। रेगुलेटिंग ऐक्ट ने बंगाल प्रेसीडेन्सी के प्रशासन के लिए एक गवर्नर जनरल की नियुक्ति की।
- प्रशासन का कार्य गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् करती थी।
- गवर्नर जनरल की परिषद् में चार सदस्य थे। प्रथम गवर्नर जनरल और उसके चार सभासदों का नामांकन ऐक्ट में ही कर दिया गया था।
- परिषद के सदस्यों को केवल कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के आग्रह पर ब्रिटिश सम्राट द्वारा ही हटाया जा सकता था। इसका अर्थ यह है कि गवर्नर जनरल को इन पर कोई प्रमुखता प्राप्त नहीं हुई।
- सम्पूर्ण कलकत्ता प्रेसीडेन्सी का प्रशासन तथा सैनिक शक्ति इसी सरकार में निहित थी।
- बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सिविल इलाकों के प्रशासन का अधिकार भी गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् को ही प्राप्त था ।
- मद्रास और बम्बई प्रेसीडेन्सियों को भी कलकत्ता प्रेसीडेन्सी के अधीन कर दिया गया था।
- कलकत्ता की सरकार को बम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सी की सरकारों को शान्ति एवं युद्ध-सम्बन्धी मामलों में आदेश देने का प्राधिकार भी प्रदान किया गया।
- विधायी शक्ति—गवर्नर जनरल की परिषद् को कम्पनी के फोर्ट विलियम सेटेलमेंट (बस्ती) के प्रशासन एवं न्याय-व्यवस्था के लिए विधि बनाने की शक्ति प्राप्त थी ।
- रेगुलेटिंग ऐक्ट के द्वारा कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना भी की गई। (स्थापना वर्ष 1774)
- सुप्रीम कोर्ट को सिविल, आपराधिक, नौसेना तथा धार्मिक मामलों में अधिकारिता प्राप्त थी।
- इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अपर न्यायाधीश होते थे।
- इन न्यायाधीशों को वकालत के कार्य का पाँच वर्ष का अनुभव होना अनिवार्य था।
- सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध अपील लंदन की प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी।
याद रखने लायक कुछ तथ्य
- भारत में सरकार का स्वरूप कैसा होगा वह, रेगुलेटिंग एक्ट ने भारत में एक सुनिश्चित शासन-पद्धति की शुरुआत करके दिखाया।
- इस कानून ने केन्द्रीय शासन प्रणाली शरुआत की
- वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का पहला गवर्नर-जनरल बनाया गया था।
- Frederick North और Lord North ने 18 May 1773 को इस कानून को संसद में प्रस्तुत।
- पहली गठित परिषद के निम्नलिखित सदस्य थे–
- जॉन क्लेवरिंग
- जॉर्ज मानसन
- फिलिप फ्रांसिस
- रिचर्ड बारवेल
- सर एलिजाह इम्पे इसके प्रथम मुख्य न्यायाधीश थे
- तथा तीन अन्य न्यायाधीश ― चैम्बर्स , लिमेंस्टर तथा हाइड थे।
बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स (Board of Director) में बदलाव
- रेगुलेटिंग एक्ट के द्वारा बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के सदस्यों की कार्यकाल को एक वर्ष से बढ़ाकर 4 वर्ष कर दिया गया।
- बोर्ड ऑफ डायरेक्टर की संख्या 24 थी। इस एक्ट के तहत इसकी सदस्य संख्या में कोई बदलाव नहीं किया गया था।
- किंतु पहले इन सदस्यों के चुनाव में कंपनी के वे शेरहोल्डर भाग लेते थे जिसकी शेयर की मूल्य £500 या इससे ज्यादा थी। इस एक्ट के तहत यह शेयर मूल्य को बढ़ाकर £1000 कर दिया गया।
- इस एक्ट के द्वारा, ब्रिटिश सरकार को बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के माध्यम से कंपनी पर नियंत्रण मजबूत हो गया।
- इसे राजस्व, नागरिक और सैन्य मामले की जानकारी ब्रिटिश सरकार को देना आवश्यक कर दिया गया।